रेत का सावन




1  - गीली लकड़ी का धुआँ नथुने में जाते ही उसकी साँसे घुटने लगी वह खास्ता हुआ उठ गया | बंद मुठियो से आँखों को साफ करते हुए सामने देखा | माँ झोपड़ी के कोने में लकड़ियाँ फूंक-फूककर  मोटी -मोटी  रोटियां सेंक रही थी |, उसे उठते देख तुरंत बोल उठी ' उठ गया मुन्ना चल जल्दी से रोटी खा ले मुझे काम पर निकलना है | वह अलसाई हुई आँखों पर चुल्लू भर कर पानी डालने लगा और जाकर चूल्हे के पास बैठ गया और नमक , चीनी मिली मोटी-रोटी को मोड़कर हाथ में ही दबाकर कर काट-काटकर खाने लगा | तभी एक ट्रक के शोर से वह चौंक उठा आधे चबे कौर  के साथ उसका मुँह रुक गया और अगले ही पल अपना अनुमान सही पाकर वह मुँह में पानी उडेल, बिना चप्पल पहने , बिना कुछ कहे तीर की गति से बाहर भगा | पीछे से आती माँ की आवाज़ भी उसे सुनाई न दी , और सीधे पहुच गया ट्रक के पास जिससे एक बार फिर रेत का ढेर ज़मीन पर गिराया जा रहा था | उसकी अधखुली आँखें प्रसन्नता की लहर के कारण पूरी फ़ैल गयी थीं , कमर पर दोनों हाथों को टिका लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगा | गिरती हुई रेत का ढेर अब टीले में परिवर्तित हो चुका था |

2 - सूर्य के प्रकाश में दमकता रेत का टीला देखकर तो मानो उसकी मनोकामना ही पूर्ण हो गई | चारो ओर घूम-घूम कर ऐसे निरिक्षण कर रहा था , मानो किसी राजा को कही से बहुत बड़ा कुबेर हाथ लग गया हो | इस उत्साह का कारण उसका जुनून था ----| हाँ रेत का घर बनाने का जूनून ,जिसकी तीव्रता अन्य किसी बच्चे से कहीं अधिक उसके मन में थी | क्योकि रेट का घर बनाना उसका खेल ही नहीं था उसका मकसद बन चूका था | कारण ये था कि उसके अपने घर अर्थात उसकी तिरपाल वाली झोपड़ी की हालत इतनी ख़स्ता हो चुकी थी , जिसके अंदर भी उतनी ही मुसलाधार बारिश होती चुकी थी जितनी झोपड़ी के बाहर , ठंड में ये हाल होता कि बर्फीली हवाएँ उसके और उसके परिवार के हाथ पांव बर्फ कि भांति जमने लगते  | पूरा परिवार ही पेट में घुटने धँसा कर बैठे - बैठे न जाने कितनी राते काट देता | माँ की गोद की गर्मी एक नन्ही सी बहन और उससे एक साल बड़े भाई के हिस्से में चली जाती | अत : उसे बापू के हाथो के घेरे में छिपकर इस विकराल सर्प जैसी रात का सामना कांपते हुए शरीर से करना पड़ता | गरजती बिजली ऐसी लगती मानो उस सर्प की लम्बी - लम्बी जीभ सब को लपेट लेगी और ठंडी हवा के झोके तो जैसे उसके कोमल शरीर को किसी भीगे कपडे की तरह निचोड़ कर तोड़ने का कठोर प्रयास करती | पिछले वर्ष इन स्थितियों का सामना करने के लिए " तिरपाल के बारीक से  बारीक  छिद्र बंद करने में अपने माँ - बापू का हाथ भी बटाया पर बरसात की  विनाशकारी मदमस्त आवेग,  किसी राक्षस की भाँति उसकी झोपड़ी को चिढ़ा-चिढ़ा कर ध्वस्त कर जाता | यह सब सहकर उसका विश्वास अपनी झोपड़ी से पूर्णत: उठ गया | 
उसने आत्मप्रण लिया  कि अब , अगली बरसात और ठंड में वह ऐसा नहीं होने देगा , माँ की लकड़ियों और घर के आटे - दाल को जल धारा में डूबने नही देगा , अब वह एक सुन्दर सा घर बनाएगा | जिसमे सब सुखपूर्वक रहेंगे - जिसे बारिश , धूप , ठंडी हवा कोई नही छेड़ पायेगी | 

- सामने वाले मैदान में भाग से उसे यह अवसर बार - बार मिलने भी लगा क्योंकि पास में ही निर्माणाधीन सरकारी आवास योजना के रेत , पत्थर यहीं गिराये जा रहे थे | पर कई बार से ऐसा संयोग भी हो रहा था कि जब वह अपने पूर्ण उत्साह से निर्मित रेत के घर में प्रवेश करने की बात सोचता उसका घर किसी न किसी फावड़े का शिकार ही जाता | आज इस बड़े ढेर पर एक सुनियोजित व सुन्दर मकान बनाने का उसका स्वप्न मानों रूप लेने को तैयार खड़ा था | वह एक बार उलटे कदमो से पीछे भागा और पूरी गति से दौड़ता हुआ रेत के टीले के शंकु नुमाँ आकार पर पहुँच गया | दोनों हाथो व पैरों को फैला कर वह पेट के बल रेत पर मुह रखकर लेट गया , मानों अपनी एक - एक इंद्रिय को रेत का ठन्डे आलिंगन से अशवस्त देना चाहता हो कि उसका विजय - दुर्ग अतिशीघ्र ही तैयार होने वाला है | शरीर पर चुभती रेत बालों में खुजली करते कण , यह सब उसके आनन्द की सीमा बढ़ाये जा रहा थे | हथेलियों में भर भर कर अपने ऊपर रेट गिरा रहा था और गोल - गोल ऐसे नाच रहा था मानों वर्षा ऋतू के आगमन पर महीनो से प्रतीक्षा रत मयूर अपने पंख पसारकर नाच रहा हो वह बेसुध रेत उड़ाता जा रहा था और नाचता जा रहा था | आज ये ही रेत का सावन उसके सुरक्षित घर की तृष्णा को तृप्ति देने वाला था | नाचते , लोटते रेत उड़ाते वह थक गया | लुड़कता हुआ नीचे आकर बैठ गया और सोचने लगा , घर बनाने हेतु प्रयाप्त सामग्री की संपूर्ण योजना के विषय में | भागता हुआ निकल गया जंगल की ओर किसी ठोंस आधार की खोज में |

- एक बड़ा बैलगाड़ी का टूटा पहिया दिखा | किसी पारखी इंजीनियर की भाँति चारों ओर से घूम-घाम कर निरिक्षण किया , मजबूती के समस्त आयाम पर खरा उतरता देख उसे खींचने में पूरी क्षमता लगा दी | दोनों हाथों को परिधि में फँसा कर खिचता हुआ उल्टा चलने लगा |  इस प्रयास में उसके हाथ में कई बार पीड़ा उठ गयी और वह पहिया को वहीँ छोड़ थोड़ी देर खड़ा होकर गहरी - गहरी सांसे भरने लगा | अन्त में उसकी प्रसन्नता का ठिकाना ही न रहा जब उसे दुर्ग के समान चमकता रेत का टीला दिखाई देने लगा | सारी थकान मिट गई , एक बार फिर पूरी शक्ति जुटाकर पहिया खींचने लगा और खींच लाया उसे टीले की चोटी तक | नन्हे - नन्हे हाथों से रेत हटाया , पहिया को थोड़ा अंदर धंसाकर निश्चित किया कि कहाँ पर घर का कमरा बनेगा , किस भाग में माँ की रसोई और किस भाग में घर का अनाज रखा जायेगा | इस परिकल्पना के साथ उसने अपना घर बनाना आरम्भ कर दिया |


- जून की गर्मी अपने यौवन के चरम बिंदु पर थी , सूर्य की भीषण आग पृथ्वी के कोने को सेंक रही थी , ऐसे में रेत का स्पर्श जलती हुई चिंगारियों सा प्रतीत हो रहा था | पर उसकी अखण्ड प्रतिज्ञा को हिला पाने का साहस किसी में न था | स्वयं उसे भी होश नहीं था कि उसकी भूख , प्यास की सीमा कहाँ तक पहुँच चुकी थी | वह ध्यानमग्न  था घर के कमरों की खिडकियों में एकत्रित किये पतले - पतले तिनको की छड़ें खोसने में | तभी ध्यान आया ये बापू का कमरा हैं उनके कमरे में हवा अधिक आयेगी तो वह   रात भर खासेंगे , इसी लिए एक खिड़की बंद कर दी |  माँ की रसोई में एक छोटा सा रेत का चूल्हा बनाया , ऊपर ऊँगली से सुराख करके धुँआ निकलने का मार्ग बनाया और मुस्करा कर सोचने लगा अब धुँआ मेरे हलक मे जाकर खासी नही लायेगा | घर के सामने एक प्लास्टिक की टूटी   हुई पाइप खोंस दी बोला --- यह हमारा पानी वाला नल है अब हमें छोटे -छोटे बरतनो मे पानी नहीं लाना होगा | छत पर जाने के लिए भी उसने टीन के टुकड़े से रेत काट काटकर सीढ़ियाँ बनाई , और कोने में एक छोटा कमरा  बना दिया | यह लकड़ियों वाला कमरा है , अब हमारी  लकड़ियां बरसात में भीगेगी नहीं और न ही अम्मा को रोटी बनाने के लिए बार - बार फूंकना पड़ेगा | घर के सामने सरकंडे की लकड़ी से झुला बना दिया , ख़ाली सिगरेट  की डिब्बी से झूले का आसन बनाया , रेशमी फीते से डोरी बनाई | यहाँ इस झूले पर बैठकर मैं और गोलू झूला झूलेंगे जगह इतनी बड़ी है कि मुन्नी भी बैठ जायेगी , फिर वह खिलखिलाकर हँसेंगी तो हम तालियां बजाकर लम्बी - लम्बी पेंगे मारेंगे | अन्त में टूटी चूड़ियाँ , काँच के टुकड़े की बारी आई , सबको बराबर से घर की बाहरी दीवारों पर जमा दिया | किसी महल की दीवारों की भाँति उसके घर की दीवारे भी हीरे जवाहरात से जड़ी दीवारें प्रतीत हो रही थीं | घर के चारों ओर पेड़ो की डंडियाँ व पत्ते जमाकर उससे खेत बनाया , पेन के टूटे ढक्कन को बैल बनाकर खड़ा कर दिया |

6 - पश्चिम दिशा में प्रवेश करता नारंगी सूर्य का गोला मानों उसके अबोध प्रयासों और कल्पना की मासूमियत पर मुस्कुराता हुआ अस्त हो गया | उसने एक बार तो सोचा कि, माँ ,  बापू , गोलू , मुन्नी सबको लाकर आज ही गृह प्रवेश कर लिया जाये पर अगले ही पल दुसरे दिन आने की बात सोचकर वह हाथ झाड़कर खड़ा हो गया गोल आकार वाले पहिये जैसे ठोंस आधार पर बना उसका घर इतना सुन्दर होगा , इसकी तो उसने कल्पना भी नही की थी | हर आयाम से मकान का निरिक्षण करता वह घर लौट गया  | 

7 - मन में उमड़ती अथाह उमंग के प्रवाह ने उसको रात भर सोने न दिया | रेत का वह गोल सुन्दर मकान उसकी आँखों के सामने से हट ही नहीं रहा था | पर सुबह होते - होते उसकी ऑंखें लग गईं | कोमल मन को भयभीत करने वाली ' आशंकाएं उसे सपना बन कर डराने लगीं तभी एक तेज़ स्वर से उसकी आंख खुल गई वह घबराकर उठ बैठा - यह किसी ट्रैक्टर का शोर था - किसी अनहोनी आशंका के भय से वह सीधा भागा रेत के अपने घर की ओर | वहां पहुँचकर उसने एक ठंडी साँस ली | कांपती हुई टांगे संतुलित हुई तो देखने लगा रेत के उच्च शिखर पर जमे अपने घर को जो अबतक शान से खड़ा था | उसके आनन्द का ठिकाना न रहा किसी उन्मुक्त पंछी की भाँति दोनों हाथ फैलाकर अधीर हो उठा , दौड़कर एक बार फिर अपने सुंदर घर का स्पर्श पाने को | पर अचानक ही फड्ड.. की आवाज़ ने उसकी भिंची हुई आँखें फैला दी | ऐसा लगा मानों उसे किसी ने ऊँची चट्टान से खाई में धकेल दिया हो |उसका यह मुज़बूत घर बेलचे के एक ही प्रहार में बिखर गया | उसके विश्वास का वह ठोंस पहिया इधर -उधर लुढ़कता हुआ रेत उड़ाता टीले के नीचे आ गिरा | उसका सिर चकरा गया , वह धप्प.. से पहिये के पास ही बैठ गया | दोनों आँखें आँसुओं से डबडबा गईं , उसका छोटा सा दिल जोर - जोर से धड़क रहा था ,  मुँह से रोने की चीख़ रोकने के प्रयास में उसके होंठ कांपने लगे , विवशता की वेदना में उसका आस्तित्व  डूब गया | वह छोटा सा चूल्हा , झूला , हीरे - पन्ने जैसे काँच और चूड़ी के टुकड़े सब एक ढेर बनकर  रेत वाली गाड़ी में गिर गये |उसका मन हुआ सब को रोक दे , पर वह ऐसा नहीं कर पाया | उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ    ठेकेदार , मज़दूर सब रेत के ढेर में मिले उसके सपनों के टुकड़े लेकर बढ़ गये | और वह नि : सहाय उन्हें देखता रह गया |

8 - नन्हे - नन्हे घूंसों से उस ठोंस पहिया पर वार करने लगा मानों सबका रोष इसी पर उतार देता चाहता हो ..| 

- शायद उस अबोध को नही मालूम था कि उसने आधार अवश्य ठोस चुना था , पर उस आधार को जमाया तो उसने रेत की नीव पर ही था ... जिस पर टिका निर्माण कभी सफल नही हुआ |

10 - अन्त में कांपती टांगों से वह खड़ा हो गया , उसकी मुट्ठी में भरी रेत भी फिसल कर गिर चुकी थी |  चिपके रह गये थे कुछ कण .....
ठीक उसके भाग्य की भाँति .............| 

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