निर्बल ममता

निर्बल  ममता 

 1 .एक बड़ा सा घर जहाँ - माँ , बाप , भाई , बहन , चाचा ,फुफी , फूफा और सबके साथ - साथ मुर्गियां , मुर्गे और कुछ बच्चे रहते थे |

2 .उसी घर में आज तमाम प्राणियों के अतिरिक्त , आज सुबह से ही मेहमानों का ताँता लगा हुआ था | कभी घर के बड़े से दरवाज़े के सामने रिक्शे की सवारियां  लग रही थी , तो कभी  दो - दो , चार - चार के झुण्ड में पैदल आने वाले ज़ोर- ज़ोर से आवाज़े लगाते ,  हँसते - क़हक़हे लगाते घर की देहलीज़ से आँगन में उतर रहे थे | क्योकि आज इस घर में बच्चो के चाचा की शादी की दावत थी |

3 .  कहावत है - कि , अक्सर सूर्य के प्रकश में दमकती ऊँची -ऊँची दीवारों के पीछे अँधेरा ही होता है | शायद ऐसी ही स्थिति घर के ' बाशिन्दे ' उन बच्चो की थी जो आम दिनों में दिन के खाने के नाम पर तो गुड़ की काली चाय में डूबी बासी रोटी खाकर पेट की भूख शान्त कर लेते , पर दिन चढ़ते ही दुआ करते कि दिन में खाई चाय रोटी जल्दी से हज़म न हो जाये क्योंकि रात के खाने की शुभ घड़ी तो जैसे उन अबोधों से  हमेशा के लिए रूठ ही गयी थी |

4 .  आज घर की दावत में उन्हें आम बच्चो की भांति केवल मौज मस्ती करने की बात ही खुश नहीं कर रही थी , बल्कि पेट भर कर , वो भी दोनों वक़्त खाना खाने की चाह ने तो जैसे उनकी नसों में सुबह से रक्त संचार के गति को ऐसा त्वरित रूप दे दिया कि वे ग़रीब बिना दौड़े ही अपनी धड़कन का कारण समझ नही पा रहे थे | हर नये मेहमान को हसरत से देखते पर अचानक किसी के बुलाने पर अपने मैले 
  -  पुराने कपड़ो पर दृष्टि जाती तो मन में एक विचित्र सी हीन - भावना जग जाती और मोटी सी दीवार की आड़ में सहम कर पीछे दुपक जाते |

5 .  किसी के पाँव में टूटी चप्पल थी , तो कोई बिना चप्पल के ही कोने में खड़ा अंगूठे से ज़मीन कुरेदने लगता | मन बहुत हो रहा था कि , इस झुण्ड में सम्मिलित होकर नवागंतुको के साथ आये बच्चो के साथ खेलें ..... पर परिहास न उड़ पाए यह सोचकर वे दूर से ही दृश्य अवलोकन करके किसी प्रकार मन को बांधे हुए थे |

6 . तभी बड़े - बड़े बर्तनों व कुर्सी मेज़ की गाड़ी आकर रुकी | अब तो मानो उनके उत्साह में चार चाँद लग गये हों |  कल्पना की उड़ान भरने लगे | इस वाले बर्तन में बिरयानी बनेगी , इसमें क़ोरमा , इसमें हलुआ .. | इन प्लेटो में खाना खाया जायेगा --------- ज़रूर यह रसगुल्लों वाला बर्तन होगा मुह में आती लार उन सबके मिथ्या स्वाद का अनुभव देती जा रही थी | न जाने यह भी प्रकृति का कौन सा क्रूर नियम है कि लार बनती भी है तो खाली पेट में ,जो गले से नीचे उतर - उतर कर भूख की तीव्रता में और आग लगा देती है |

7 . सूर्य ने अपनी दिशा बदलनी आरंभ कर दी | बड़े - बड़े बर्तनों में रंग - बिरंगे व्यंजन लगभग तैयारी पर पहुँच रहे थे | कोई बावर्ची किसी को स्वाद चखाने हेतु कटोरी में गोल - गोल चमकती गुलाब जामुन निकाल कर देता तो बच्चो की गर्दने भी उसी ओर तन जातीं , लाल - लाल चमकती गुलाब जामुनो का स्वाद आँखों से ज़बान पर उतार लेने को आतुर हो उठते |

8 . तभी पीछे से किसी प्रौण महिला की तेज़-तर्रार आवाज़ आयी , " अरे तुम लोग वहां क्यों खड़े हो ज़रा इधर तो आओं " बस मन था कि बल्लियों उछल पड़ा .. "शायद हमें भी कुछ मिलने वाला है ", इस आशा के साथ दौड़ पड़े उसी आवाज़ की ओर , पर अगले ही पल आदेश आया - " सब मिलजुल कर मेज़े खींचकर बराबर से लगा दो , और ध्यान रहे चोट-चपाट खाकर कोई बैठ न जाये " मन में उठे उन्माद पर मानो घड़ों पानी पड़ गया
 | तीव्र उत्साह से उठे क़दम वहीँ दुपक गये  , पर दूसरे ही क्षण ... पसीने में डूबी एक बड़े से सिल पर मसाला पीसती माँ नज़र आई | आस्तीन से माथा साफ़ करती हुई नज़रे उठाकर बच्चों को देखा , और सदा की भांति शांत मुस्कान  से  उनसे मेज़े लगाने का अनुग्रह करने लगी |
उस
से  भी बड़ा असर दिखा गया पूरी तरह से तैयार गरमा - गर्म हलुए का कढ़ाव

9 . न जाने किस आशा के वशिभूत होकर छोटे - छोटे हाथों से अपनों क्षमता से बहुत भारी कार्यो को भी पूर्णोत्साह 
 से करने लगे | आँखों की कनखियों से हर व्यंजन को डोंगों में निकलते देखते जा रहे थे दो - चार छोटे मोटे काम और भी मिले वो भी उत्साह से कर दिये | ऐसा लगता था मानो अब स्वाद से भरे पल जल्दी ही उन तक आने वाले हों | पर तभी एक अंतिम आदेश तो जैसे उन के काल्पनिक दुर्ग को ध्वस्त ही कर गया - "बच्चों सब काम हो गये ? अच्छा अब तुम लोग ज़रा दूर चले जाओ क्योकि मेहमान आकर खाना खाने वाले हैं " |

10 . बाल-मन की धैर्य सीमाएं यहीं पर समाप्त हो गयीं | सब के सब दौड़कर थकी-हारी , बर्तन पोंछती माँ के पास पहुँचे " माँ हमारे चाचा की दावत है न ... हम क्यों दूर जायें ?
  माँ ने सदा की भांति एक वेदना पूर्ण मुस्कान से समझाया " अरे हाँ तो तुम्हे मना कौन करता है .. हम तो घर के लोग हैं , खाना तो मेहमान ही पहले खाते हैं न ? " पर बच्चे दूर जायें भी तो कहाँ , पूरा घर तो भरा था | इधर - उधर नज़रें दौड़ाकर माँ पुनः बोली बच्चों जाओ ऊपर चले जाओ , छत पर कोई नहीं है , मेरे भी सारे काम ख़तम हो ही गये हैं बस मैं भी आ ही रही हूँ '|

11 . बच्चे क्षुब्ध मन से धीरे - धीरे सीढ़ियाँ चढ़ते ऊपर चले गये | ऊपर आने - जाने वालों का शोर कम , पर मिले - जुले पकवानों की सोंधी खुशबू अधिक थी - सब के सब हाथों को मुंडेर पर रख और उसी पर अपने गालों को टिका कर नीचे झाँकने लगे | थोड़ी देर के बाद सीढियों से आती क़दमो की आहट से उनका ध्यान उसी ओर खिंच गया .. 
 "  कोई आ रहा है ... शायद माँ , ज़रूर हमारे लिए कुछ लेकर आई होगी  "  | हुआ भी ऐसा , माँ ही थी , पर खाली हाथ | आकर सबको प्यार किया , और अपने पास बैठा लिया |

12 .  थोड़ी देरतक तो माँ के  ममतामई घुटने और बाहें उन थके - भूखे अबोधों का आश्रय बन गये , पर मुँह में निवाले भरकर बोलते हुए लोगों के बातचीत के स्वर डोंगो और प्लेटो से टकराते चम्मच उनके धीरज को मानो चुनौती देने लगे |

इनकी भूख की भांति रात की कालिमा भी गहन हो चुकी थी पर इन मासूमो की आशा की किरण
ज्यों की त्यों  इनकी पथराई आँखों में पसरी हुई थी | एक बार फिर मुंडेर से नीचे झाँकने लगे , लगभग सारे अतिथि खा-पीकर प्रस्थान कर चुके थे , कुछ से " और खाओ " का आग्रह भी किया जा रहा था और इधर निष्ठुरता ने अपनी कठोरतम परीक्षा के लिए इन बच्चों को ही जैसे अपना मोहरा बना लिया था |

13 . कोमल मन की सहन शक्तियां टूटने को आतुर थी | एक बार फिर भूख से व्याकुल होकर सबने माँ की शरण ली , जिसकी झूठी मुस्कान भी अब चिंता के भाव में विलीन हो चुकी थी | माँ ने उन्हें एक बार फिर ह्रदय से लगा लिया, बच्चो की निढाल सूरत देखी , सबके पेट पीठ तक धँसे हुए थे | अभागों को दिन की चाय रोटी तो इस कारण से न मिली की ' मेहमानों के सामने शादी वाले घर में ऐसा खाना अपशगुन माना जायेगा , उसपर दुर्भाग्य की यह सीमा की रात का खाना इस अन्धविश्वास से चला गया की , बच्चो के लिए तो कोई न कोई खाना भेज ही देगा |  इन विचारो में गुम माँ ने सबको  थपकियाँ देनी शुरू कर दी | उस ममत्व में न जाने कैसा सम्मोहन था जो एक - एक करके सबको नींद आने लगी |

14 . कोई भूख से खाली पेट में दर्द बताता तो माँ पेट सहलाने लगती ,मुंडेर से टिके रहने के कारण किसी के घुटने पीड़ा कर रहे तो माँ
घुटने दबा-दबा कर सुलाने लगी |
धीरे - धीरे सब शांत .....
बर्तनों में बजते चम्मचों का स्वर , मेहमानों का शोर ....., बच्चो की भूख , और आमानवियता की चरम सीमा .. सृष्टि विजेताओं की मानवीय चेतना .. अंतरात्मा की न्याय - संगत पुकार .. व्यवहारिक चेष्टाएँ .. करुणामयी प्रजातियों के  वात्सल्य भाव  .. न्याय धर्म का स्वांग रचने वालों की कोरी प्रतिक्रियाएं .. नियति की विविध क्रीड़ायें .. |

15 .  ये सब निष्क्रिय हो गये अमानुषता के वीभत्स तांडव के आगे | मानवता का हर प्रारूप सो गया .........
पर क्या माँ भी सो गयी ......?