चकर-चूं का झूला

छोटे से मोहल्ले में बड़े से मैदान के गर्द ग़ुबार के धुंधलके में लगते हुए छोटे -छोटे पिंडाल और सर पर रंग बिरंगी पगड़िया बाँधे डेरेवालों को आया देख पूरे मोहल्ले के बच्चो में एक विचित्र रोमांच की लहर दौड़ जाती – ‘ मेला आया – मेला आया ‘ चिल्लाते हुए इनका एक हुजूम जमा हो जाता मोटी-मोटी रस्सियों और चेन से कसे जाने वाले झूले , सर्कस के तम्बू , जादूगरों के ठिकाने और मिट्टी के खिलौने अपना आकार लेने लगते , और इधर इन मासूमों में उत्साह की तीव्रता बढ़ती जाती |
तालियाँ बजा – बजा कर पूरी स्फुर्ती से कूदने भागने लगते मानों इस सृष्टि की रचना केवल उन्हीं के लिए की जा रही हो जिसमें वे सदियों के आनंद का अनुभव केवल एक ही दिन में करके तृप्त हो जाना चाहते हों झुण्ड का हर बच्चा आनंद से झूम रहा है अपनी तीव्र शक्ति लगाकर कूद रहा है – मगर ……. दो छोटी बहनों का हाथ पकड़े ‘ उसके ‘ चेहरे की चमक के बीच चिंतन रेखा साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी , धीरे – धीरे चलता हुआ जाकर खड़ा हो गया खट-पट की ध्वनी के बीच कसते हुए ‘ चकर-चूं के झूले ‘ के पास जिसकी प्रतीक्षा वह एक साल से कर रहा था . ये झूला उसके लिए एक चुनौति बनकर एक बार फिर कहा जा रहा था . चुनौति क्योकिं पिछले वर्ष मन में भरे उत्साह पर खाली-फटी जेब के कारण उसे बिना झूले ही निराश मन से घर लौटना पड़ा था |
झूला तैयार होता जा रहा था और उसके सामने चुनौति मजबूत होती जा रही थी – परीक्षण के तौर पर घनी सफ़ेद मूंछो वाले बूढ़े ने खाली झूला घुमाना शुरू कर दिया ऊपर से नीचे घूमता झूला अपने हर चक्कर में उसे चिढ़ाने लगा एक -एक कर पल बीतने लगे ‘ वो ‘ कभी नाचते झूले को बाएं जाकर निहारता तो कभी अपनी ओर
‘ तक़ाज़ा ‘ करने की दृष्टि से घूरती बहनों को गर्दन हिलाकर सांत्वना देता तभी छोटी वाली अपनी तोतली ज़बान में पूंछ बैठी ‘ भय्या हमें कब धुला धुलाओ गे ‘ बड़ी वाली भी गोल गोल आँखें नचाकर वही पूंछ रही थी इस प्रश्न पर तो मानो वह हिल ही गया – तुरंत संभल कर बोला ‘ चुपचाप रह छोटी इस बार हम झूला ज़रूर झूले गें ‘ पर ‘ कैसे ‘… इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नही था धूप की तपिश बढ़ने लगी सूरज सिर पर चढ़ने लगा बच्चों की टोलियाँ एक-के बाद एक झूले पर बैठना शुरू हो गईं झूला अपने पुरे आवेग से घूमना शुरू हो गया पर ‘ कैसे ‘ ये सवाल ज्यों का त्यों किसी क्रूर राक्षस की भाँति नन्हे से मन में विराजमान होकर अपने लम्बे – लम्बे नाखूनों से उसके ह्रदय को खुरच रहा था -
इस ‘ कैसे ‘ का उत्तर पाने के लिए सबसे पहले उसने बार-बार झूले का हट करती अपनी बहनो को ले जाकर खड़ा कर दिया सर्कस के शेर , चीते ,और हाथी बने तम्बू के पीछे ताकि एकाग्र मन से कोई युक्ति सोची जा सके – और जाकर एक बार फिर खड़ा हो गया …. ‘ चकर-चूं ‘ के सामने … घिसी चप्पल से रेत की गर्मी उसके तलवों को जलाने लगी तभी उसकी दृष्टि झूला नचाने वाले बूढ़े पर पड़ी जो काफी निढाल नज़र आ रहा था – उसके मन में मानो आशा की एक चिंगारी फूटी पास जाकर फुस-फुसा कर बोला ‘ चाचा अब मैं झुलाऊँ ‘ – बच्चे की परिस्थति , अपनी थकान और धूप के कारण घटती बच्चों की संख्या देखते हुए – बूढ़े ने आँखों से झूला घुमाने का संकेत दे दिया और बीड़ी सुलगाकर किनारे खड़ा हो गया पर तुरंत ही दूसरी शर्त की ओर उसका ध्यान आकृष्ट हुआ… ‘ चाचा मै अपनी बहनों को भी झुलाऊँगा ‘ दबी बीड़ी के होंठ के कोनों से बूढ़ा मुस्करा दिया और धुएँ का छल्ला छोड़ते हुए हामी भर दी – बस अब क्या कहने मानो ब्राह्मांड की डोर उसके हाथो में आ गई भागता हुआ तम्बू के पीछे पंहुचा टूटे-फूटे विस्तार से साथ दोनों को खीचता हुआ लाया और बैठे हुए बच्चों के बीच छोटी – छोटी जगह बनाकर उन्हें बैठा दिया | नन्हें-नन्हें पंजे खोल , एक पाँव -पीछे और एक पाँव आगे कर पूरी उर्जा के साथ लगा झूला घुमाने ऊपर से नीचे-नीचे से ऊपर घूमते झूले पर अपनी बहनों की रोमांच भरी चींखो के साथ तो ऐसा लग रहा था मानो सृष्टि
‘ फ़तेह ‘ कर ली | उबल-उबल कर बहती पसीने की धार ने उसके चेहरे की चिंतन रेखाएं धो दी थी बालो की चिपकी लट हटाता तो झूला रुकने लगता पर ऐसा किये बिना – वह पूरी तल्लीनता से झूला घुमाए जा रहा था | हथेलियां लाल हो गईं… पतली-पतली भुजाओं में गाँठे पड़ने लगी … पाँव गर्म – गर्म रेत में धँसने लगे.. गले में तो मानों काँटों का जाल फैल गया हो – ऊपर से आलू की सुनहरी टिक्की और पकौड़ियों की सोंधी – सोंधी खुशबु से उसके पेट के चूहे छाती से टकराने लगे | पर क्या मजाल जो यह सब उसकी गति कम कर दे | अचानक बच्चो की अगली टोली आ पहुँची बूढ़ा पाँव से बीड़ी दबाते हुए उसके पास आ गया ” बबुआ जाओ अब मुझे अपना काम करने दो ” वह रुक गया , बच्चे कूद – कूद कर झूले से नीचे आकर इधर-उधर भागने लगे , उसने लपक कर बहनों की कलाई पकड़ ली – जो अपने रोमांचक पलों का बखान करते नही थक रहीं थीं | वायदा पूरा करने के बाद जैसे उसका सीना गर्व से तन गया .. वह आगे बढ़ गया पर मन अटक गया चकर-चूं की गोल-गोल घूमती चकरियों में – गर्दन पीछे घुमाए , मिट्टी के हाथी , घोड़े , गुड्डे , गुड़ियें, चाट , पकौड़ी सबकी दुकान छोड़ता हुआ आगे बढ़ता गया पर आखरी छोर पर पहुँच कर जलती हथेलियाँ मली और ठिठक कर खड़ा हो गया शायद एक अंतिम बार झूले को देखने… ‘ तोतली ‘ फिर बोल उठी ” भय्या तुमने तो धूला .. धुला ही नहीं ” … उसका ध्यान झूले से हट कर उसके प्रश्न से जा टकराया – एक बार तो सकपका गया – पर संभल कर बोला – ” अरे पगली – देखा नहीं तुझे झुलाते – झुलाते ही शाम हो गई…. बहुत देर हो गई है .. घर चलते हैं.. मैं अगले साल झूल लूँगा ” ….. !