चीथड़े का भाग्य


1- साँझ की दस्तक में अभी कुछ देर बाक़ी थे | अपनी -अपनी दिनचर्या में हर कोई व्यस्त था | स्कूल - कॉलेज से लौटते लड़के - लडकियां .. ग्राहकों से भरी दुकाने .. भेड़ - बकरियां हकाते चरवाहे.. और चाट - कुल्फी के ठेले सजाते दुकानदार .. | सभी के चेहरों पर एक उत्साह की चमक थी |

2 -  अचानक धूल - गर्द के ग़ुबार से निकल कर भागती एक निर्वस्त्र
 'नर - आकृति ' .... और उसका पीछा करती भद्दी गलियों ने इस साधारण से माहौल को हतप्रद बना दिया ! फिर पीछे भागती 5 - 7  आकृतियाँ और उनके हाथ में उस निर्वस्त्र आकृति के फटे वस्त्रो और संवादों ने ये दर्शा दिया कि - ये जनाब  अपनी इज़्ज़त के अंतिम पर्दे को भी खो चुके थे | कुछ दूर पीछा करने  के बाद  वह आकृति भी गुम हो गयी .......... पीछा करने वाले भी टेढ़ी - मेढ़ी सूरत बनाते पाँव पटकते , एक दुसरे पर ही पंजे मारते वापस हो लिए | सब कुछ फिर से वैसे का वैसा हो गया | पर कहाँ गयी वह निर्वस्त्र आकृति ?


3 - कहते हैं -  डूबते को तिनके का सहारा मिल जाये तो वह तिनका उसके लिए किसी नए ' टाईटानिक ' से कम महत्व नहीं रखता | वैसे ही इस अभागे के साथ हुआ भागते - भागते दृष्टि पड़ी पेड़ पर लटके बद रंगे चीथड़े पर ....! आगे-पीछे  हाल - अहवाल पूछने वाला तो कोई था नहीं... हरकतें ऐसी की अपने तन के कपड़ो ने भी साथ रहना गवारा न किया .... | बस अँधेरे में जुगनू की तरह चमकते इस चीथड़े पर झपट पड़ा और ढँक ली अपनी उजड़ती लाज ! बैठ गया उसी पेड़ के नीचे सुस्ताने .. | मगर , पापी दिमाग कहाँ शांत रहने वाला था | आते जाते लोगों को देखते ही लगा चिल्लाने अरे ओ बाबु ! ओ  बहन जी !ओ बच्चा ! " बाबा जी का आशीर्वाद नही लोगे " ? लोगों का ध्यानाकर्षण देखते हुए तुरंत शुरू हो गया "जानते हो मैं कौन मैं हूँ ..? रचायिता का सर्वप्रिय भक्त ... और एक ऐसा भक्त जिसको यह लंगोट वरदान में मिली ... जानते हो क्यों ? ताकि मैं सांसारिक मोह माया त्याग कर वस्त्र - आभूषण , त्यागकर उसकी सच्चे मन से उपासना कर
सकूँ | इस लंगोट का ही यह करिश्मा है कि इसे लपेटते ही ऐसा आभास होता है मानो इश्वर के दर्शन हो गए " | उसे ये मालूम न था कि इस चीथड़े का इसिहास - इसकी उपज से लेकर लटकने तक की जानकारी रखने वाला लुटिया कुम्हार उसी भीड़ में खड़ा था | लुटिया को याद आया कि काफी समय पहले ही तो चाचाजी ने इस गम्छे को बेकार समझकर ऐसा फेंका कि सीधा पेड़ पर जा लटका |  हवा के झोंकों के साथ अपने होने का एहसास लहरा - लहरा कर निरंतर दिलाता रहा | गुस्से के मारे उसका शरीर कांपने लगा , नाख से गर्म-गर्म श्वास छोड़ता किसी भड़के सांड की भाति भीड़  को  चीरता आगे बढ़ा ... निशाना था लंगोटधारी की आगे - पीछे मटकती - डोलती गर्दन | उँगलियाँ मचल उठीं उस ढोंगी के कंधे तक बढ़े झोटे नुमा बालों को जकड़ने और उन्ही के सहारे नाचाकार पाताल लोक पहुँचाने को l पर ये क्या .... ! सामने पहुँचते ही ठिठक कर खड़ा हो गया | सोचने लगा - जो कम्बख्त इतना लुटा हुआ है ... की पेड़ से उपेक्षित चिथड़े नुमा कपड़े को खींचकर इसका बखान कर रहा है , उससे यह भी छीन लेना , या भीड़ के सामने वास्तविकता बता देना क्या उचित होगा ? बस मन ने कहा - चल लुटिया लौट चल... संसार के रचयिता की लीला अपरंपार है .... l

4 - पर एक बात थी जो लुटिया के दिमाग़ को घिरनी की तरह घुमाए जा रही थी - वह यह कि प्रभु की इस लीला का उद्देश्य उस उपेक्षित चिथड़े को मान दिलवाना था या फिर नंगी काया पर पर्दा डालना ......!